दो बहनें

इसपर से शशांक के अनेक दोषों की बात उठी और साथ ही नीरद इस अत्यन्त शोचनीय दुर्भावना को भी दबाकर नहीं रखसका कि उनमें बहुत से ऐसे दोष अभी ढके हुए हैं जो उम्र बढ़ने के साथ ही साथ एक-एक करके प्रबल आकार में प्रकट होंगे। लेकिन यह सब होने पर भो नीरद मुक्त-कंठ से ही स्वीकार करना चाहता है कि वे बहुत भले आदमी हैं। उसीके साथ यह भी कहना चाहता है कि उनके संगदोष से और उनके घर की आबहवा से अपने-आपको बचाना ऊर्मि के लिये विशेष आवश्यक है। अगर ऊर्मि का मन उनकी समान-भूमि पर उतर आवे तो अधःपतन होगा।

ऊर्मि बोली, "आप इतने अधिक उद्विग्न क्यों हो रहे हैं।"

"क्यों हो रहा हूँ सुनोगी? बुरा तो नहीं मानोगी?"

"आप ही से सब बात सुनने की शक्ति पाई है। जानती हूँ, सहज नहीं है तो भी सहन कर सकती हूँ।"

"तो कहता हूँ, सुनो। तुम्हारे स्वभाव के साथ शशांकबाबू के स्वभाव का सादृश्य है। यह बात मैंने देखी है। उनका मन एकदम हल्का है। वही तुमको अच्छा लगता है। बताओ सच कहता हूँ कि नहीं?"

ऊर्मि सोचने लगी, यह आदमी सर्वज्ञ तो नहीं है। निस्संदेह वह अपने बहनोई को ख़ूब पसंद करती है, इसका प्रधान कारण यह है कि शशांक खिलखिलाकर हँस सकता है, ऊधमी है, मज़ाक करता है और ठीक जानता है कि ऊर्मि को कौन सा फूल पसंद है और किस रंग की साड़ी उसे भाती है।

ऊर्मि ने कहा, "हाँ, वे मुझे अच्छे लगते हैं यह बात ठीक है।"

नीरद ने कहा, "शर्मिला दीदी का प्रेम स्निग्ध गम्भीर है। उनकी सेवा मानों एक पुण्य-कर्म है। अपने कर्तव्यकर्म से वे छुट्टी नहीं लेतीं। उसीके प्रभाव में शशांकबाबू ने एकाग्र चित्त से काम करना सीखा है। किन्तु जिस दिन तुम भवानीपुर जाती हो उसी दिन उनका आवरण हट जाता है। तुम्हारे साथ नोक-झोंक शुरू हो जाती है, वे तुम्हारे केश के काँटे निकालकर जूड़ा खोल देते हैं, तुम्हारे हाथ में पढ़ने की किताब देखकर ऊँची आलमारी के सिरे पर रख देते हैं। टेनिस खेलने का शौक़ अचानक प्रबल हो उठता है, बहुत से काम पड़े हों तो भी।"

ऊर्मि को मन ही मन मानना पड़ा कि शशांक इस प्रकार शरारत करते हैं इसीलिये उसे अच्छे लगते हैं। उनके पास जाने पर उसका अपना लड़कपन तरङ्गित हो उठता है। वह भी उनके ऊपर कम अत्याचार नहीं करती। दीदी उन दोनों की शरारत देखकर अपनी शान्त, स्निग्ध हँसी हँसती रहती हैं। कभी-कभी मीठी फटकार भी बताती हैं लेकिन वह भी दिखावा ही होता है।

नीरद ने उपसंहार में कहा, "जहाँ तुम्हारा अपना स्वभाव प्रश्रय न पावे वहीं तुम्हें रहना चाहिए। मैं अगर नज़दीक रहता तो कोई चिन्ता नहीं थी क्योंकि मेरा स्वभाव तुमसे एकदम उल्टा है। तुम्हारा मन रखने के लिये उसे एकदम मिट्टी में मिला देने का काम मुझसे कभी भी नहीं हो सकता।"

ऊर्मि ने सिर झुकाकर कहा, "आपकी बात सदा याद रखूँगी।"

नीरद ने कहा, "मैं तुम्हारे लिये कुछ किताबें रख जाना चाहता हूँ। जिन अध्यायों पर मैंने निशान लगा दिए हैं उन्हें विशेष रूप से पढ़ना, आगे चलकर काम आएगा।"

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